माता-पिता जो अपनी युवावस्था में अपने बच्चों को सुनहरे भविष्य के लिए स्वयं को भूलकर, जी तोड़ मेहनत कर उन्हें सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाते हैं और उच्च शिक्षा के पश्चात वे सन्तानें महानगरों या बड़े-बड़े शहरों में नौकरी, रोजगार मिल जाने पर उन्हीं माता-पिता को घर पर छोड़ देते हैं हताश एवं एकाकी जीने को। जिनकी पथराई आंखें हमेशा उनका इंतजार करती रहती हैं।

इसी प्रकार बड़े अरमानों के साथ बेटे का विवाह कर माता-पिता जिस बहू को डोली में बिठाकर लाते हैं। विवाह के कुछ समय बाद वे बेटा-बहू अपनी निजी जिंदगी में सबकुछ भुलाकर इतना रम जाते हैं कि घर के बुजुर्ग माता-पिता उन्हें भार लगने लगते हैं और फलस्वरूप या तो वे माता-पिता को छोड़कर अलग चले जाते हैं या फिर उन्हें घर से निकल जाने को मजबूर कर देते हैं।

अति आधुनिक सोच के कारण अतिशिक्षित युवा जिनके घर में वर्द्ध माता-पिता है, हमेशा अपने पुत्र-पुत्रियों को प्रतिपल चलो होमवर्क करो,  à¤‡à¤¨à¤¸à¥‡ क्या सीखोगे,  à¤¯à¥‡ पुराने लोग है,  à¤…पना काम करो इत्यादि बातों द्वारा अपने-अपने माता-पिता को हतोत्साहित करते नजर आते है।

एक ओर सर्वाधिक घातक प्रवृत्ति कि जबतक माता पिता या बुजुर्ग कमाते है, घर का कार्य करने में समर्थ है तब तक उनकी बड़़ी आवभगत,  à¤®à¤¾à¤¨ सम्मान एवं देखभाल। और ज्योंही वे वृद्ध रिटायर अथवा कार्य करने में असमर्थ हुए नहीं कि वे माता-पिता संतानों को पर्वत से अधिक भारी लगते है। फलस्वरूप प्रारंभ होता है तानों,  à¤‰à¤²à¤¾à¤¹à¤¾à¤¨à¥‹à¤‚ के माध्यम से प्रतिदिन का अपमान और उनकी सुविधाओं में कटौती का खतरनाक सिलसिला। जिससे उनका जीवन नारकीय बन जाता है।

ये चन्द वे उदाहरण मात्र है जो आज के दौर में हमें अपने चारों ओर वृद्धों के साथ देखने को मिलते है। आज के इस भौतिकवादी,  à¤†à¤§à¥à¤¨à¤¿à¤•,  à¤¬à¤¾à¤œà¤¾à¤°à¤µà¤¾à¤¦ के आधार पर विकसित समाज ने मानवीय संवेदनाओं और पारिवारिक परिस्थिति पर सर्वाधिक कुठाराघात किया है जिसकी सर्वाधिक मार घर परिवार के बुजुर्गों को सहनी पड़़ी है।

आज अधिकांश घरों में बूढे माता-पिता, दादा दादी को अकेले में अवसादित जीवन व्यतीत करते देखा जा सकता है। आधुनिक सुख-सुविधाओं की चाह, स्वतंत्र जीवन जीने की प्रवृत्ति ने समाज की अमूल्य धरोहर बुजुर्गों को सबकुछ होते हुए भी निराश्रित के समान घर में रहने को मजबूर कर दिया है या फिर घर से बाहर वृद्घाश्रमों का रास्ता दिखा दिया है।

घर या वृद्घाश्रमों में एकाकी रह रहे ये बुजुर्ग शिकार है अपनों की उस आधुनिक भौतिकतावादी सोच का जो उन्हे समाज में एक अनुपयोगी तत्व मानती है। अपने विकास में बाधक समझती है। वे भूल जाते है कि वृद्घावस्था मनुष्य जीवन की एक अवश्यम्भावी प्रवृत्ति है। प्रत्येक को इस स्थिति से गुजरना पड़़ेगा। यदि आज का बुजुर्ग दुर्रवस्था का शिकार है तो सत्य मानिये वर्तमान के युवा का भविष्य अंधकारमय है।

वृद्घाश्रमों की संख्या में बढोत्तरी मानवीय संवेदनहीनता का परिणाम है। मनोवैज्ञानिक रिसर्र्च ने भी स्पष्ट किया है कि 80 प्रतिशत से भी अधिक वृद्घ वृद्घाश्रम के जीवन से संतुष्ट नहीं होते है। पोते-पोती, बेटा, बहू, घर-परिवार के प्रति हार्दिक लगाव उन्हे निरंतर बैचेनी देता है।

बुजुर्र्गों को उपेक्षा नहीं सम्मान चाहिए - ये वृद्ध परिवार से धन दौलत या भौतिक सुविधाओं की चाह नहीं रखते है, केवल सम्मान चाहते है। इनकी चाह इतनी सी है कि उन्हे अपनों का प्यार मिले। परिवार उनके साथ शिष्टाचार का व्यवहार करे। तानों, उलाहनों के अपमानित वचनों से मुक्ति मिले। उन्हे उपेक्षित जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं किया जाए।

समझे परिवार की अवधारणा – बुजुर्र्गों के उपेक्षित जीवन के पीछे परिवार की अवधारणा को  ठीक ढंग से नहीं समझ पाना भी एक बड़़ा कारण है। आधुनिक पारिवारिक अवधारणा में परिवार नाम केवल पति-पत्नि और उनके बच्चों का है। इसी कारण बेटा बहू द्वारा जीवन में वृद्घ माता-पिता, सास-ससुर उपेक्षित कर दिये जाते है। जबकि परिवार की प्राचीन अवधारणा में पति-पत्नि एवं उनके बच्चों के अतिरिक्त माता-पिता, बुजुर्ग, दादा-दादी का भी समावेश है।

आज आवश्यकता है उस पुरातन धारणा को समझने की। इसे अपनाकर जब परिवार के अभिन्न अंग के रूप में बुजुर्गों को स्वीकार करने लगेंगे तो स्वतरू ही इनके प्रति आपने मन में प्रेम स्नेह एवं सम्मान की भावना जन्म लेने लगेगी और वे उपेक्षित बुजुर्ग अपने बन जायेंगे।

संस्कारों के संवाहक हैं बुजुर्ग - घर, परिवार, समाज, राज्य के समृद्घिपूर्ण जीवन निर्माण में संस्कार का बड़़ा महत्व होता है। बुजुर्ग ही वे होते है जो संस्कारों को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तांतरित करते है। यदि वे उपेक्षित है तो जानिये समाज का नैतिक विकास उपेक्षित है।

स्वतंत्रता अधिकार तो वृद्घों की सेवा कत्र्तव्य है - प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रता चाहता है अधिकार चाहता है और युवा दंपत्ति अपने पारिवारिक जीवन में इसी स्वतंत्रता के नाम पर बुजुर्गों की अवहेलना करते है, किन्तु व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति का नाम स्वतंत्रता नहीं है। उन्मुक्त जीवन विनाश की ओर ले जाता है। घर परिवार से वृद्घों की उपेक्षा ही का परिणाम है कि आज नवविवाहितों एवं अति शिक्षितों के बीच विवाह विच्छेद की संख्या बढती जा रही है। अतरू स्वतंत्रता के साथ घर में बुजुर्गों के महत्व को समझें उनकी सेवा आपका कर्तव्य  à¤ªà¤¾à¤²à¤¨ है।

अनुभव का खजाना है वृद्घावस्था रू- आज समाज में वृद्घों को अनुपयोगी मानने की घातक प्रवृत्ति बढ रही है। हम कम्प्यूटर, इंटरनेट से अर्जित ज्ञान को ही सर्वोच्च समझते हैं किन्तु ऐसा नहीं है ये आधुनिक उपकरण आपको नॉलेज दे सकते हैं अनुभव नहीं। जीवन केवल नॉलेज के आधार पर नहीं जिया जा सकता। इसे जीने के लिए अनुभव की आवश्यकता होती है और ये अनुभव मिलता है बुजुर्र्गा से। क्योंकि उनके पास जीवनभर का अनुभव होता है तो आपके लिए सदैव उपयोगी है। इतिहास में अनेकों ऐसी कथाएं है जो ये बतलाती है कि बुजुर्र्गां के अनुभव किस प्रकार उपयोगी है। वृद्घावस्था अनुभवों का इन्साइक्लोपीडिया होती है। इसका फायदा स्वयं उठायें और अपने बच्चों को उठाने दें।

विरासत को न भूलें - आधुनिकता विरासत को भूलने का नाम नहीं है। हमारी परम्परा एवं संस्कृति में वृद्घों का महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उनके सम्मान एवं सेवा की बात कही गई है। भारतीय परम्परा में पितृपूजा एवं पित्रेष्टि जैसे यज्ञों का विधान मिलता है जो माता पिता एवं वृद्घों के प्रति कत्र्तव्यों का ज्ञापक है। शास्त्रों में कहा गया है कि नित्य प्रति माता-पिता एवं वृद्घों की सेवा एवं सम्मान करने वाले व्यक्ति की आयु विद्या, यश एवं बल ये चार वस्तुएं नित्य प्रतिदिन बढती है। मानव विधान के प्रथम निर्माता महर्षि मनु ने तो स्पष्ट लिखा है कि दुखित होकर भी माता-पिता का अपमान नहीं करना चाहिए। इसलिए हमेशा उनका सम्मान करे।

वृद्घावस्था जीवन का वह काल है जिससे एक दिन प्रत्येक युवा को रूबरू होना पड़़ेगा, किसी शायर ने कहा है कि जाकर न आने वाली जवानी देखी और आकर न जाने वाला बुढापा देखा। इसलिए यदि आज आप वृद्घों को जैसा व्यवहार या महत्व देंगे उनका सम्मान करेंगे, उनके प्रति सहानुभूति रखेंगे तो मानिये आप अपना कल सुधार रहे हैं। यदि आप आज अपने वृद्घों की उपेक्षा करेंगे तो कल आपके किशोर पुत्र-पुत्रियां उपेक्षा करेंगे।

हम मनुष्य हैं, केवल मेडिक्लेम पॉलिसी, इंश्योरेंस और पेंशन फण्ड से वृद्घावस्था नहीं गुजारी जा सकती। मानवीय संवेदनाओं की जितनी आवश्यकता जीवन की अन्य अवस्थाओं में होती है उससे अधिक वृद्घावस्था में होती है। याद रखें वे केवल प्रेम, स्नेह, सम्मान चाहते हैं अतरू अपने कल को बेहतर रखने के लिए आज वृद्घों को अपनाएं उन्हें सम्मान दें सेवा करें।

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